चर्चा प्लस | पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ कहता है ‘महाभारत’ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ कहता है ‘महाभारत’
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
हमारे आदिग्रन्थ, हमारे महाकाव्य हमारे आदर्श ग्रन्थ हैं। हम उन्हें आदरपूर्वक पढ़ते हैं। हम उनका ‘पाठ’ करते हैं। लेकिन हम इस बात पर ध्यान नहीं देते कि ये महाकाव्य हमें पर्यावरण का महत्व भी बताते हैं। महाभारत महाकाव्य, जिसे हम राजनीतिक दांव-पेचों से भरी कहानी के रूप में देखते हैं, उसमें भी कई स्थानों पर पर्यावरण की चर्चा की गई है। राजनीति में माहिर विदुर सिर्फ राजनीति पर ही सलाह नहीं देते बल्कि पर्यावरण संरक्षण की भी सलाह देते हैं। भीष्म सिर्फ राज्य की रक्षा की बात नहीं करते बल्कि युधिष्ठिर को पेड़ों को कटने से बचाने की सलाह देते हैं। खांडव वन के जलने की कहानी अपने आप में एक गंभीर पर्यावरणीय शिक्षा देती है। यानी महाभारत पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ कहता है, बस इस पर ध्यान देना जरूरी है।
महाभारत में धर्म और नीति के आदर्श के साथ-साथ प्राकृतिक जगत का विस्तृत चिंतन मिलता है। पर्यावरण संरक्षण पारिस्थितिकी की चिंता में हिंदुओं ने बहुत सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। कहते हैं ‘‘एक वृक्ष दस पुत्रों के समान होता है’’। महाभारत में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। महाभारत में अनेक स्थानों पर वृक्षों का महत्व देखने को मिलता है। इसके अंतर्गत महाभारत के वनपर्व में विदुरनीति के अंतर्गत वृक्षों एवं वनस्पतियों के संवर्धन के प्रयासों के अनेक उदाहरण दिये गये हैं। अनेक प्रकार की वनस्पतियों का वर्णन है। पौधे के प्रकार के सन्दर्भ में कहा गया है-
वनस्पतेरपक्वानि फलानि प्रचिनोति ।
स नाप्नोति रस तेम्यो बीज चास्य विनश्यति ।।
व्यस्तु पक्वमुपादत्ते काले परिणत फलम् ।
फलाद्रसं से लगते बीजाच्चैव फलं पुन ।
- विदुर ने लोगों को उपदेश दिया कि जिस प्रकार भ्रमर फूलों से रस लेकर शहद प्राप्त करता है, उसी प्रकार न तो फूल को कोई नुकसान पहुंचता है और भृंग भी अपना भोजन प्राप्त कर लेते हैं। हमें भी प्रकृति के प्रति ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए अर्थात हमें प्रकृति से इतना लेना चाहिए कि उससे प्रकृति को कोई नुकसान भी न हो और हमारी जरूरतें भी पूरी हो जाएं। हमें पौधों से फूल तो इकट्ठा करने चाहिए, लेकिन कभी भी उन्हें पूरी तरह से नष्ट करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
महाभारत के अनुशासन पर्व में जल संरक्षण को महान धार्मिक कार्य घोषित करते हुए देश या ग्राम में एक तालाब के निर्माण को धर्म-अर्थ-काम तीनों का फल देने वाला बताया गया है-
तस्य पुत्राः भवन्त्येते पादपा नात्र संशयः ।
परलोकगतः स्वर्ग लोकाश्चाप्नोति सोव्ययान।।
नदियों के मौलिक रूप तथा उनका मानवीयकरण कर के महाभारत में कई कथाएं मौजूद हैं। महाभारत में भीष्म पितामह सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक हैं। वे हस्तिनापुर के महाराज शांतनु और गंगा नदी की आठवीं संतान थे। उनका मूल नाम देवव्रत था। भीष्म का समूचा जीवन ही केवट कन्या मत्स्यगंधा के कारण ब्रह्मचर्य में ढल गया। वस्तुतः भीष्म अर्थात् देवव्रत के पिता शांतनु केवट पुत्री मत्स्यगंधा पर मोहित हो गए। शांतनु ने केवट से उनकी पुत्री का हाथ मांगा किन्तु केवट ने कहा कि यदि मेरी पुत्री की संतान को राजा बनाए जाने का वचन दो तभी मैं अपनी पुत्री से तुम्हारा विवाह करूंगा। देवव्रत बड़ापुत्र था अतः वही राज्याभिषेक का अधिकारी था। जब देवव्रत ने अपने पिता को व्यथित देखा तो उसका कारण पता किया तथा केवट से जा कर भेंट की। देवव्रत ने केवट के समक्ष प्रतिज्ञा की कि वे कभी राजा नहीं बनेंगे। तब केवट ने शंका जताई कि भविष्य में यदि तुम्हारी संतान ने विरोध किया तो? इस पर देवव्रत ने भीष्म प्रतिज्ञा करते हुए आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने का वचन दिया। अर्थात् एक नदी को पार कराने वाले केवट और उसकी पुत्री के आकांक्षा ने देवव्रत को भीष्म बना दिया। केवट और उसकी पुत्री नदी की निर्मलता और उपादेयता को नहीं समझ सके थे अन्यथा वे ऐसी प्रतिज्ञा नहीं कराते जो भविष्य में धर्म और अधर्म के बीच असंतुलन का कारण बनती।
महाभारत के अनुशासन पर्व के 58वें अध्याय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा था-
अतीतानागते चोभे पितृवंश च भारत।
तारयेद् वृक्षरोपी च तस्मात् वृक्षांश्च रोपयेत।
- हे युधिष्ठिर! वृक्षों का रोपण करने वाला मनुष्य अतीत में जन्मे पूर्वजों और भविष्य में जन्म लेने वाली संतानों एवं अपने पितृवंश का तारण करता है। इसलिए उसे चाहिए कि पेड़-पौधे लगाए। दूसरे उपदेश में कहा गया -
तस्य पुत्रा भवन्त्येते पादपा नात्र संशय।
परलोगतरू स्वर्ग लोकांश्चाप्नोति सोव्ययानं।
- मनुष्य द्वारा लगाए गए पौधे वास्तव में उसके पुत्र होते हैं, इस बात में कोई शंका नहीं है। जब उस व्यक्ति का देहावसान होता है तो उसे स्वर्ग एवं अन्य अक्षय लोग प्राप्त होते हैं।
उद्योग पर्व में कहा गया है-
निर्वनो वघ्यते व्याघ्रो निव्र्याघ्रं छिद्यते वनं।
तस्माद्व्याघ्रो वनं रक्षेद्वयं व्याघ्रं च पालयेत।।
अर्थात जंगल न हो तो बाघ मारा जाता है. यदि बाघ न हो तो जंगल नष्ट हो जाता है। इसलिए, बाघ जंगल की रक्षा करता है और जंगल बाघ की रक्षा करता है।
आज हम ऐसी कई घटनाएं सुनते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि हाथियों के झुंड गांवों पर हमला क्यों करते हैं या सांप जैसे जहरीले जानवर घरों में क्यों घुस जाते हैं? क्योंकि हम उनके घरों पर कब्जा कर रहे हैं, हम उनसे उनके आवास छीन रहे हैं। इसका परिणाम हमें किसी न किसी रूप में भुगतना ही पड़ता है। इस संबंध में महाभारत के आदिपर्व की दो कथाए बहुत महत्वपूर्ण हैं जो प्रकृति को नुकसान पहुँचाने से होने वाले नुकसान के बारे में आगाह करती हैं। ये दोनों कहानियां बताती हैं कि अगर मनुष्य प्रकृति को नुकसान पहुंचाएगा तो बदले में प्रकृति भी उसे नुकसान पहुंचाएगी और दुश्मनी का यह सिलसिला हमेशा चलता रहेगा। इससे किसी को फायदा नहीं होगा बल्कि नुकसान दोनों का होगा। पौराणिक कथा के अनुसार, अग्निदेव के अनुरोध पर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने इंद्रप्रस्थ के पास खांडव वन को जला दिया था। अग्निदेव ने इस वन को जलाने की सात बार कोशिश की थी लेकिन हर बार असफल रहे। क्योंकि खांडव वन में देवराज इंद्र का मित्र तक्षक नाग रहता था। उसकी रक्षा के लिए इंद्र हर बार जल की वर्षा करते थे और अग्नि को जंगल जलाने के लिए हार माननी पड़ती थी। तब अग्नि ने कृष्ण-अर्जुन की मदद मांगी और इंद्र के विरोध करने पर कृष्ण को चक्र और कौमोद की गदा, अर्जुन को गांडीव धनुष, दो अक्षत तरकश और इंद्र सहित देवताओं से युद्ध करने के लिए दिव्य कपिध्वज रथ दिया गया। तब कृष्ण-अर्जुन ने दिव्यास्त्रों की सहायता से विशाल खांडव वन को जला डाला। इस घटना के समय तक्षक जंगल में नहीं था, हालांकि इंद्र ने जंगल को बचाने की पूरी कोशिश की लेकिन वे उसे बचा नहीं सके। परिणामस्वरूप, जंगल के लाखों पेड़ भीषण आग में जल गए, उसमें रहने वाले असंख्य पशु-पक्षी भी आग में जलकर राख हो गए। तक्षक के पुत्र नाग अश्वसेन, मयासुर और चार शारंग पक्षियों को छोड़कर कोई भी जानवर और वनस्पति नहीं बची।
आदि पर्व के आस्तीक पर्व में कथा है कि खांडव वन जलाने के प्रतिशोध में तक्षक नाग ने अर्जुन के पौत्र परीक्षित को काटकर मार डाला था। तब जब जनमेजय ने परीक्षित की हत्या का बदला लेने के लिए नागयज्ञ किया। तभी आस्तिक मुनि ने आकर उसे रोका। उस यज्ञ में बहुत से साँप जलकर भस्म हो गये, परन्तु तक्षक बच गया। मानो आस्तिक मुनि ने जनमेजय के बहाने हम सभी मनुष्यों को प्रतीकात्मक रूप से यह शिक्षा दी कि यदि प्रतिकार की प्रतिक्रिया प्रतिशोध ही है तो यह चक्र कभी समाप्त नहीं होगा। प्रकृति को अनावश्यक क्षति उस पर्यावरण को हानि पहुँचाती है जिसमें हम सभी मनुष्य रहते हैं। आज जलवायु परिवर्तन के भयावह परिणामों को देखकर इसे आसानी से समझा जा सकता है। इस तथ्य की व्याख्या हजारों वर्ष पहले ही महाभारत में कर दी गई थी। सबके साथ रहना भी हमारे हित में है, जब हम केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति पर ध्यान केंद्रित कर वनों के विनाश का कार्य करते हैं तो एक समय यह सही लगता है, लेकिन इसका दुष्परिणाम हमें आने वाले समय में भुगतना पड़ता है। पीढ़ियों. प्रकृति और पेड़ों के विनाश से न केवल अकाल और जहरीली हवा का दुष्प्रभाव पड़ता है बल्कि अंत में हमारी भावी संतानों को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।
वेदव्यास ने वृक्षों में चेतना का होना माना है-
सुखदुःखयोश्च ग्रहणच्छिन्नस्य च विरोहणात।
जीव पश्यामि वृक्षाणामचैतन्य न विद्यते ।।
महाभारत में एक पूरा वन पर्व ही रखा गया है। जो वन संस्कृति का परिचायक है। महाकाव्य में कदलीवन, काम्यकवन, द्वैतवन, खाण्डववन जैसे अनेक वनों के नाम हैं और अनेक महत्वपूर्ण प्रसंग वन अंचल में ही घटित हुए हैं। वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली, त्वक्सार तथा तृण के रूप में स्थावर भूत वृक्षों की छह जातियों का भी वर्णन है। इनमे ऋषि-मुनियों के तपस्थल और आवास रहा है। अनेक राजा भी अपने गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों से मुक्त होकर यथासमय वानप्रस्थी होकर वन की ओर उन्मुख होना अपना धर्म समझते हैं। कथा में देवापि से लेकर धृतराष्ट्र तक के वन गमन की कथाएं इसकी प्रमाण हैं। हिन्दू धर्म में जीवन के 4 प्रमुख भाग (आश्रम) किये गए हैं- ब्रम्हचर्य, ग्रृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। अर्थात तीसरे भाग वानप्रस्थ का अर्थ वन प्रस्थान करने वाले से है। मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानकर प्रत्येक आश्रम 25 वर्षों का होता है- 1.ब्रम्हचर्य आश्रम (जन्म से 25 वर्ष तक)- शैक्षणिक उपलब्धियां एवं बौद्धिक विकास हेतु। 2.गृहस्थ आश्रम (25 से 50 वर्ष तक)- सामाजिक विकास हेतु धर्म,अर्थ,काम की प्राप्ति हेतु। 3.वानप्रस्थ आश्रम (50 से 75 वर्ष तक)-आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु। 4.सन्यास आश्रम (75 से 100 वर्ष तक)- मोक्ष प्राप्त करना।
वानप्रस्थ आश्रम को दो रूपों ‘‘तापस’’ और ‘‘सांन्यासिक’’ में विभाजित किया गया था। माना जाता था कि जो व्यक्ति वन में रहकर हवन, अनुष्ठान तथा स्वाध्याय (वेद और स्वयं का अध्ययन) करता था, वह ‘‘तापस वानप्रस्थी’’ कहलाता था। जो साधक कठोर तप करता तथा ईश्वराधना में निरन्तर लगा रहता था, उसे ‘‘सांन्यासिक वानप्रास्थी’’ कहा जाता था। वानप्रस्थ की ये दोनों अवधि वन में ही व्यतीत की जाती थी। अतः सामाजिक व्यवस्थाओं के अनुसार भी वनों का विशेष महत्व था। महाभारत में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को वृक्ष न काटने का स्पष्ट आदेश दिया गया है। हे युधिष्ठिर! अपने राज्य में भी फलदार वृक्ष न काटें। -
वनस्पतीन् भक्ष्यफलान् न च्छिन्द्युविषये तव ।
ब्राह्मणानां मूलफलं धर्म्यमाहुमनीषिणः ।।
महाभारत में वन का बहुत महत्व है। वन ही तो द्यूतक्रीड़ा में पराजित पांडवों की शरणस्थली थे। जब कौरवों और पांडवों के बीच द्यूतक्रीड़ा हुई तो उसमें दुर्योधन ने शर्त रखी थी कि यदि पांडव हार जाएंगे तो उन्हें बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष अज्ञातवास के काटने पड़ेंगे। युधिष्ठिर ने इस शर्त को मान लिया था तथा पराजित होने के बाद उसे अपने भाइयों एवं द्रौपदी तथा माता कुंती के साथ वनगमन करना पड़ा था। वन में ही राक्षसी हिडिम्बा से भीम का विवाह हुआ था। अर्जुन ने शमी वृक्ष में अपना गांडीव धनुष छिपा कर रखा था। कहने का आशय है कि विविध संदर्भों के अंतर्गत महाभारत में वन के महत्व को बताया गया है।
महाभारत कहता है, वस्तुतः मानव जीवन का अस्तित्व तभी तक सुरक्षित है, जब तक हमारा संपूर्ण पर्यावरण संतुलित एवं शुद्ध है। यह संतुलन तभी प्राप्त हो सकता है जब हम किसी भी जीवित प्राणी को नष्ट न करें, पेड़ों को न काटें और सभी चराचरों के प्रति प्रेम भाव रखें।
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