बहुत कुछ सिखाती है ‘खांडव वन दहन’ की घटना | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

बहुत कुछ सिखाती है ‘खांडव वन दहन’ की घटना
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      हम प्रकृति को नुकसान पहुंचाते हैं। प्रकृति उदार है, वह हमें दंड नहीं देती। वह हमारे अपराधों को भूल भी जाती है, लेकिन हमारे ही अपराध हमें भविष्य में दंड देते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण महाकाव्य “महाभारत” में खांडव वन की प्रलयंकारी अग्नि की कथा के रूप में मौजूद है। खांडव वन को जलाने में दो मनुष्यों ने अग्नि की मदद की, लेकिन उनमें से एक को एक वन वृक्ष ने सुरक्षा प्रदान की। प्रकृति और मनुष्य में यही अंतर है। आज जब दुनिया के बड़े-बड़े जंगल हर साल जलकर राख हो रहे हैं, तो हमें इस कथा से सबक लेना चाहिए और जंगलों को जलने के लिए छोड़ने के बजाय उनके रक्षक बनना चाहिए। तो आइए एक बार फिर खांडव वन की कथा को याद करें ताकि हम उस गलती को दोहराने से बच सकें।
जब हम ‘‘महाभारत’’ पढ़ते हैं तो कृष्ण और अर्जुन को सत्य और मानवता के पक्ष में खड़ा पाते हैं। लेकिन खांडव वन की घटना को पढ़ते हुए हमें कुछ अजीब भी लगता है। इस कथा में प्रकृति और मानवीय व्यवहार में अंतर मौजूद है। अर्जुन ने एक पूरे जंगल को जलाकर राख करने में अग्निदेव की मदद की थी, जबकि इस घटना के बाद भी उसी अर्जुन को एक पेड़ ने अपना गांडीव धनुष छिपाने के लिए आश्रय दिया था। यही प्रकृति और मानवीय स्वभाव में अंतर है। प्रकृति उदात्त है जबकि मनुष्य स्वार्थी है। अपने स्वार्थ के कारण मनुष्य प्रकृति को नुकसान पहुंचाने से कभी नहीं चूकता है। तो एक बार फिर खांडव वन की कथा याद कीजिए।

महाभारत के आदिपर्व में खंडव वन दहन की घटना का उल्लेख मिलता है। महाभारत काल में खांडव वन या खांडवप्रस्थ यमुना के पश्चिमी तट पर पथरीली भूमि का एक ऊबड़-खाबड़ इलाका था जहां नागवंशी और असुर जाति के लोग रहते थे। एक तरह से खांडवप्रस्थ का हिस्सा होते हुए भी यह हस्तिनापुर का हिस्सा नहीं है और धृतराष्ट्र पर अन्याय का आरोप न लगे, इसके लिए पांडवों को खांडवप्रस्थ दे दिया गया, जो भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को पसंद नहीं आया। जब राज्य के बंटवारे को लेकर कौरवों और पांडवों में कलह हो गई, तो मामा शकुनि की सिफारिश पर धृतराष्ट्र ने पांडवों को खांडवप्रस्थ नामक वन देकर कुछ समय के लिए शांत कर दिया। इस वन में एक महल था, जो खंडहर हो चुका था। अब पांडवों के सामने उस वन को नगर बनाने की चुनौती थी। खंडहर महल के चारों ओर भयंकर वन था। यमुना नदी के तट पर खांडव वन नामक बीहड़ वन था। पहले इस वन में एक नगर हुआ करता था, फिर वह नगर नष्ट हो गया और केवल उसके खंडहर ही बचे। खंडहरों के चारों ओर जंगल विकसित हो गया था।
एक बार जब भगवान कृष्ण और अर्जुन यमुना के तट पर घूम रहे थे, तो उनकी मुलाकात एक अत्यंत तेजस्वी ब्राह्मण से हुई। कृष्ण और अर्जुन ने ब्राह्मण को प्रणाम किया। उसके बाद अर्जुन ने कहा, ‘‘हे ब्रह्मदेव! आप पांडवों के राज्य में आए हैं, इसलिए आपकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है। बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’’
‘‘हे धनुर्धर अर्जुन! मुझे बहुत भूख लगी है। तुम मेरी भूख मिटाने का प्रबन्ध करो। किन्तु मेरी भूख साधारण भूख नहीं है। मैं अग्नि हूँ और इस खाण्डव वन को जलाकर अपनी भूख मिटाना चाहता हूँ। किन्तु इन्द्र मुझे ऐसा नहीं करने देते, खाण्डव वन में रहने वाले अपने मित्र तक्षक नाग की रक्षा के लिए वे मेघ वर्षा करके मेरे तेज को शान्त कर देते हैं और मुझे अतृप्त रहना पड़ता है। अतः जब मैं खाण्डव वन को जलाने लगूँ, तब तुम इन्द्र को मेघ वर्षा करने से रोक देना।’’ ब्राह्मण ने कहा।

‘‘हे अग्निदेव! मैं और मेरे मित्र कृष्ण भगवान इन्द्र से युद्ध करने की क्षमता रखते हैं, किन्तु हमारे पास उनसे लड़ने के लिए अलौकिक अस्त्र नहीं हैं। यदि आप हमें अलौकिक अस्त्र प्रदान करें, तो हम आपकी इच्छा पूरी कर सकते हैं।’’ अर्जुन ने कहा।
अग्निदेव ने तुरन्त वरुणदेव को बुलाया और राजा सोम द्वारा दिया गया गाण्डीव धनुष, अक्षय तूणीर, चक्र और वानर ध्वज सहित रथ अर्जुन को दिला दिया। तब अग्निदेव ने अपनी प्रचंड ज्वाला से खांडव वन को भस्म करना आरंभ कर दिया। खांडव वन से उठती हुई तीव्र ज्वालाओं से संपूर्ण आकाश भर गया और देवतागण भी दुखी हो गए। अग्नि की प्रचंड ज्वाला को बुझाने के लिए भगवान इंद्र ने भारी वर्षा आरंभ कर दी, परंतु श्रीकृष्ण और अर्जुन ने तुरंत ही अपने अस्त्रों से उन बादलों को सुखा दिया। क्रोधित होकर इंद्र अर्जुन और श्रीकृष्ण से युद्ध करने आए, परंतु उन्हें पराजित होना पड़ा। अग्निदेव की प्रचंड ज्वालाओं की ऊष्मा से व्याकुल होकर सभी वन्य जीव, जंतु अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे, परंतु श्रीकृष्ण के चक्र और अर्जुन के बाणों ने उन्हें भागने नहीं दिया।
दरअसल, इस कथा का आरम्भ होता है राजा श्वेतकी की लिप्सा से। श्वेतकी पराक्रम और बल में इंद्र के समान था। यज्ञ, दान और बुद्धि में पृथ्वी पर कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। श्वेतकी ने पांच महायज्ञ और अनेक छोटे यज्ञ किए। श्वेतकी ने इतने वर्षों तक यज्ञ किए कि एक समय ऐसा आया कि यज्ञ करने वाले पुरोहितों की आंखें निरंतर धुएं के कारण खराब हो गईं। बहुत कमजोर हो जाने के कारण वे राजा को छोड़कर चले गए और अब उसके यज्ञ में सहायता करने को तैयार नहीं थे। राजा ने कुछ अन्य लोगों की सहायता से यज्ञ पूरा किया। कुछ समय बाद राजा ने एक और यज्ञ करना चाहा जिसमें सौ वर्ष लगने थे। लेकिन वह इस यज्ञ को कराने के लिए किसी भी पुरोहित को नहीं पा सका, भले ही उसने उनसे बहुत विनती की, उन्हें बहुत धन आदि भेंट किया। तब ब्राह्मणों ने उससे कहा, ‘‘हे राजन! आपके यज्ञ अनंत काल तक चलते रहते हैं। इतने लंबे समय तक यज्ञ में आपकी सहायता करते-करते हम थक गए हैं। हमें जाने दीजिए। रुद्र के पास जाइए। वे यज्ञ संपन्न कराने में आपकी सहायता करेंगे।’’

श्वेतकी ने अपनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न किया और यज्ञ में मदद मांगी। भगवान शिव ने कहा, ‘‘मैं एक शर्त पर यज्ञ में आपकी सहायता करूंगा। यदि आप बारह वर्षों तक ब्रह्मचारी का जीवन जीते हुए अग्नि में मक्खन की आहुति डालते रहेंगे, तो आपको वह मिलेगा जो आप चाहते हैं।’’ श्वेतकी ने 12 वर्षों तक भगवान शिव के कहे अनुसार कार्य किया। 12 वर्ष पश्चात वह भगवान शिव के पास वापस आया। तब भगवान शिव ने उससे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे कार्य से संतुष्ट हूँ। किन्तु यज्ञ में सहायता करने का कर्तव्य ब्राह्मणों का है। इसलिए मैं स्वयं तुम्हारे यज्ञ में सहायता नहीं करूँगा। दुर्वासा नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, जो मेरे ही अंश हैं। वे तुम्हारे यज्ञ में सहायता करेंगे। तुम यज्ञ की तैयारी कर सकते हो।’’

राजा ने दुर्वासा की सहायता से यज्ञ का संचालन किया। यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। किन्तु अग्नि के मुख में बारह वर्षों तक निरंतर मक्खन डाला गया। इतना मक्खन पीकर अग्नि बीमार पड़ गए और पीला पड़ गया। वह पहले की तरह चमक नहीं पा रहा था। उसे भूख कम लगने लगी। उसकी ऊर्जा का स्तर कम हो गया। अपनी ऊर्जा धीरे-धीरे कम होती देख अग्नि ब्रह्मा के पास गए और मदद मांगी। ब्रह्मा ने उसे खांडव वन का भक्षण करने को कहा। ब्रह्मा की सलाह पर अग्निदेव बहुत तेजी से खांडव वन की ओर बढ़े। उन्होंने वायुदेव की सहायता से आग जलाई। वहाँ रहने वाले प्राणियों ने आग को बुझाने का बहुत प्रयास किया। हजारों हाथी अपनी सूंड में पानी भरकर आग पर डालने लगे। हजारों सांपों ने अपने फन से पानी डाला। वन में रहने वाले अन्य सभी प्राणियों ने विभिन्न तरीकों से आग को बुझाने का प्रयास किया।
अग्नि ने सात बार वन को भस्म करने का प्रयास किया और सातों बार वहाँ रहने वाले प्राणियों ने उसे बुझा दिया। अग्नि निराश और क्रोधित हो गए। तब ब्राह्मा ने अग्नि को सलाह दी कि वह कृष्ण और अर्जुन से सहायता ले। कृष्ण और अर्जुन ने अग्नि की सहायता की किन्तु खंडव वन के निरीह, निर्दोष पशु, पक्षियों और वनस्पतियों के बारे में जरा भी विचार नहीं किया। बल्कि पशु,पक्षियों को वन से बाहर भागने में रोकने का जघन्य अपराध किया। इस अग्नि से केवल छह प्राणी ही बच पाए, वे थे मय दानव, अश्वसेन और चार रंग-बिरंगे पक्षी।

खंडव वन दहन के बहुत समय बाद अर्जुन को खंडव वन में अपने गांडीव धनुष शमी वृक्ष में छिपाने की आवश्यकता पड़ी। उस समय शमी वृक्ष ने एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचा कि यह वही अर्जुन है जिसने खांडव वन को जलाने में अग्नि की सहायता की थी।

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति ने हमेशा मनुष्यों को क्षमा किया है लेकिन हम मनुष्य हमेशा से प्रकृति के प्रति क्रूर रहे हैं। हमने पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के सबसे बड़े जंगलों में लगी विनाशकारी दावानल से कोई सबक नहीं सीखा है। आज भी हम जंगलों और पेड़ों को बचाने के लिए उतना प्रयास नहीं कर रहे हैं जितना हमें करना चाहिए। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जब जंगल जलता है तो उसमें असंख्य वन्यजीव भी जलकर मर जाते हैं। इंद्र में अनेक बुराइयां होने के बावजूद भी उन्होंने खांडव वन को बचाने का प्रयास किया जबकि अर्जुन और कृष्ण अनेक अच्छाइयों के होते हुए भी जंगलों और वन्यजीवों को जलाने में सहायता करके अपराधी बन गए। जिसका परिणाम उन्हें बाद में भुगतना पड़ा। अर्जुन को अज्ञातवास के दौरान वनों में भी भटकना पड़ा और कृष्ण को तो हिरण के भ्रम में आखेटक के द्वारा चलाए गए तीर से अपने प्राण गंवाने पड़े। इसलिए हमें जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए अन्यथा इसका दृष्परिणाम भी हमें ही भुगतना पड़ेगा। यूं भी जो हमें संरक्षण देता है, उसे संरक्षित रखना हमारा नैतिक कर्तव्य है।
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